अर्जुन उवाच।

ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥1॥व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ॥2॥

अर्जुन ने कहा! हे जनार्दन, यदि आप बुद्धि को कर्म से श्रेष्ठ मानते हैं तब फिर आप मुझे इस भीषण युद्ध में भाग लेने के लिए क्यों कहते हो? आपके अनेकार्थक उपदेशों से मेरी बुद्धि भ्रमित हो गयी है। कृपया मुझे निश्चित रूप से कोई एक ऐसा मार्ग बताएँ जो मेरे लिए सर्वाधिक लाभदायक हो।३.१,२

श्रीभगवानुवाच।

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।

ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥3॥

"https://sa.wikipedia.org/w/index.php?title=०३._कर्मयोगः&oldid=478224" इत्यस्माद् प्रतिप्राप्तम्