"अभिज्ञानशाकुन्तलम्" इत्यस्य संस्करणे भेदः

No edit summary
No edit summary
पङ्क्तिः १२३:
|}
 
छन्द: - [[उपजाति:]]
{| class="wikitable"
|-
पङ्क्तिः १५२:
|१२|| पद्यम् || ७.३१
|}
 
[[छन्द:]] - [[शालिनी]]
{| class="wikitable"
|-
! क्र.!!पद्यम् !! सन्दर्भ:
|-
|१ ||सा निन्दन्ती स्वानि भाग्यानि बाला बाहूत्क्षेपं क्रन्दितुं च प्रवृत्ता।स्त्रीसंस्थानं चाप्सरस्तीर्थमारादुत्क्षिप्यैनां ज्योतिरेकं जगाम॥||५.३०
|}
 
 
[[छन्द:]] - [[रथोद्धता]]
{| class="wikitable"
|-
! क्र.!!पद्यम् !! सन्दर्भ:
|-
|१ || एवमाश्रमविरुद्धवृत्तिना संयम: किमिति जन्मतस्त्वया।सत्त्वसंश्रयसुखोऽपि दूयते कृष्णसर्पशिशुनेव चन्दनम्॥ ||७.१८
|}
 
[[छन्द]]: - [[द्रुतविलम्बितम्]]
{| class="wikitable"
|-
! क्र.!!पद्यम् !! सन्दर्भ:
|-
|१ || अभिमुखे मयि संहृतमीक्षितं हसितमन्यनिमित्तकृतोदयम्। विनयवारितवृत्तिरतस्तया न विवृतो मदनो न च संवृत:॥|| २.११
|-
|२|| ||३.१८
|-
|३|| ||५.२७
|-
|४|| ||६.८
|-
|५|| ||७.३
|}
 
[[छन्द:]] – [[वंशस्थम्]]
{| class="wikitable"
|-
! क्र.!!पद्यम् !! सन्दर्भ:
|-
|१ ||इदं किलाव्याजमनोहरं वपुस्तप:क्षमं साधयितुं य इच्छति।ध्रुवं स नीलोत्पलपत्रधारया शमीलतां छेत्तुमृषिर्व्यवस्यति॥|| १.१८
|-
|२|| ||१.२२
|-
|३|| ||१.२३
|-
|४|| ||३.१३
|-
|५|| ||४.१
|-
|६ || || ५.१२
|-
|७|| ||५.१५
|-
|८|| ||५.१७
|-
|९|| ||६.१३
|-
|१०|| ||६.१८
|-
|११ || || ६.२९
|-
|१२|| ||७.१०
|-
|१३|| ||७.१६
|-
|१४|| ||७.३०
|}
 
[[छन्द:]] – [[प्रहर्षिणी]]
{| class="wikitable"
|-
! क्र.!!पद्यम् !! सन्दर्भ:
|-
|१ || || ७.२७
|-
|२|| ||७.३०
|}
[[छन्द:]] – [[रुचिरा]]
{| class="wikitable"
|-
! क्र.!!पद्यम् !! सन्दर्भ:
|-
|१ || प्रवर्ततां प्रकृतिहिताय पार्थिव: सरस्वती श्रुतमहतां महीयताम्। ममापि च क्षपयतु नीललोहित:पुनर्भवं परिगतशक्तिरात्मभू:॥ || ७.३५२७
|}
 
[[छन्द:]] – [[वसन्ततिलका]]
{| class="wikitable"
|-
! क्र.!!पद्यम् !! सन्दर्भ:
|-
०१॥ मुक्तेषु रश्मिषु निरायतपूर्वकाया निष्कम्पचामरशिखा निभृतोर्ध्वकर्णा:।आत्मोद्धतैरपि रजोभिरलङ्घनीया धावन्त्यमी मृगजवाक्षमयेव रथ्या:॥१.८
|-
 
०२॥ - ॥१.२७
|-
०३॥ ॥१.३१
|-
०४॥ ॥ २.९
|-
०५॥ ॥ २.१२
|-
०६॥ ॥ ३.१०
|-
०७॥ ॥ ३.२०
|-
०८॥ ॥ ३.२६
|-
०९॥ ॥ ४.१
|-
१०॥ ॥ ४.२
|-
११॥ ॥ ४.१०
|-
१२॥ ॥ ४.१२
|-
१३॥ ॥ ४.१३
|-
१४॥ ॥ ४.१४
|-
१५॥ ॥ ४.१९
|-
१६॥ ॥ ५.२
|-
१७॥ ॥ ५.३
|-
१८॥ ॥ ५.६
|-
१९॥ ॥५.२२
|-
२०॥ ॥ ५.२३
|-
२१॥ ॥ ६.१२
|-
२२॥ ॥६.१६
|-
२३॥ ॥ ६.२०
|-
२४॥ ॥ ६.२५
|-
२५॥ ॥ ७.४
|-
२६॥ ॥ ७.६
|-
२७॥ ॥ ७.१७
|-
२८॥ ॥ ७.२५
|-
२९॥ ॥ ७.२६
|-
३०॥ ॥ ७.३२
|}
 
[[छन्द:]] – [[मालिनी]]
{| class="wikitable"
|-
! क्र.!!पद्यम् !! सन्दर्भ:
०१॥ न खलु न खलु बाण: सन्निपात्योऽयमस्मिन्मृदुनि मृगशरीरे पुष्पराशाविवाग्नि:।क्व बत हरिणकानां जीवितं चातिलोलं क्व च निशितनिपाता वज्रसारा: शरास्ते॥॥ १.१०
|-
०२॥ ॥१.१९
|-
०३॥ ॥ १.२०
|-
०४॥ ॥ २.४
|-
०५॥ ॥३.३
|-
०६॥ ॥ ५.७
|-
०७॥ ॥५.८
|-
०८॥ ॥ ५.१९
|-
०९॥ ॥७.७
|-
१०॥॥७.३४
|}
 
 
[[छन्द:]] – [[मन्दाक्रान्ता]]
{| class="wikitable"
|-
! क्र.!!पद्यम् !! सन्दर्भ:
०१॥कुल्याम्भोभि: पवनचपलै:शाखिनो धौतमूला भिन्नो राग: किसलयरुचामाज्यधूमोद्गमेन।एते चार्वागुपवनभुवि च्छिन्नदर्भाङ्कुरायां नष्टाशङ्का हरिणशिशवो मन्दमन्दं चरन्ति॥॥ १.१५
|-
०२॥ ॥१.३३
|-
०३॥ ॥२.१४
|-
०४॥ ॥२.१५
|}
 
 
[[छन्द:]] – [[शिखरिणी]]
{| class="wikitable"
!क्र.!!पद्यम् !! सन्दर्भ:
०१॥ यदालोके सूक्ष्मं व्रजति सहसा तद्विपुलतां यदर्धे विच्छिन्नं भवति कृतसन्धानमिव तत्।प्रकृत्या यद्वक्रं तदपि समरेखं नयनयोर्न मे दूरे किञ्चित्क्षणमपि न पार्श्वे रथजवात्॥॥ १.९
।-
०२॥ ॥१.२४
।-
०३॥ ॥ २.१०
।-
०४॥ ॥ ३.८
।-
०५॥ ॥ ५.१०
।-
०६॥ ॥ ६.९
।-
०७॥ ॥ ७.३३
।}
 
[[छन्द:]] – [[हरिणी]]
{| class="wikitable"
!क्र.!!पद्यम् !! सन्दर्भ:
०१॥ इदमशिशिरैरन्तस्तापाद्विवर्णमणीकृतं निशि निशि भुजन्यस्तापाङ्गप्रसारिभिरश्रुभि:।अनभिलुलितव्याघाताङ्कं मुहुर्मणिबन्धनात् कनकवलयं स्रस्तं स्रस्तं मया प्रतिसार्यते॥॥ ३.१२
|-
०२॥ ॥४.१८
|-
०३॥ ॥ ७.२४
|}
 
 
 
[[छन्द:]] – [[शार्दूलविक्रीडितम्]]
{| class="wikitable"
!क्र.!!पद्यम् !! सन्दर्भ:
०१॥ नीवारा: शुकगर्भकोटरमुखभ्रष्टास्तरूणामध: प्रस्निग्धा: क्वचिदिङ्गुदीफलभिद: सूच्यन्त एवोपला:। विश्वासोपगमादभिन्नगतय: शब्दं सहन्ते मृगास्तोयाधारपथाश्चवल्कलशिखानिष्यन्दरेखाङ्किता:॥॥ १.१४
|-
०२॥ ॥ १.३०
|-
०३॥ ॥ २.२
|-
०४॥ ॥ २.५
|-
०५॥ ॥ २.६
|-
०६॥ ॥ ३.९
|-
०७॥ ॥ ३.२५
|-
०८॥ ॥ ४.४
|-
०९॥ ॥ ४.५
|-
१०॥ ॥ ४.८
|-
११॥ ॥ ४.१६
|-
१२॥ ॥ ४.१७
|-
१३॥ ॥ ५.९
|-
१४॥ ॥ ६.४
|-
१५॥ ॥ ६.५
|-
१६॥ ॥ ६.६
|-
१७॥ ॥ ६.१७
|-
१८॥ ॥ ७.८
|-
१९॥ ॥ ७.११
|-
२०॥ ॥ ७.१२
|-
२१॥ ॥ ७.२७
|}
 
 
 
 
[[छन्द:]] – [[स्रग्धरा]]
{| class="wikitable"
!क्र.!!पद्यम् !! सन्दर्भ:
०१॥या सृष्टि: स्रष्टुराद्या वहति विधिहुतं या हविर्या च होत्री ये द्वे कालं विधत्त: श्रुतिविषयगुणा या स्थिता व्याप्य विश्वम् यामाहु: सर्वबीजप्रकृतिरिति यया प्राणिन: प्राणवन्त: प्रत्यक्षाभि: प्रपन्नस्तनुभिरवतु वस्ताभिरष्टाभिरीश:।॥१.१
|-
०२ ॥ ॥१.७
|}
 
 
[[छन्द:]] – [[वैतालीय: (वियोगिनी)]]
{| class="wikitable"
!क्र.!!पद्यम् !! सन्दर्भ:
 
 
०१॥क्व वयं कव परोक्षमन्मथो मृगशावै: सममेधितो जन:।परिहासविजल्पितं सखे परमार्थेन न गृह्यतां वच:॥॥ २.१८
|-
०२॥ ॥ ६.१
|-
०३॥ ॥ ७.१
|}
 
[[छन्द:]] – [[अपरवक्त्र:]]
{| class="wikitable"
!क्र.!!पद्यम् !! सन्दर्भ:
०१॥ अनुमतगमना शकुन्तला तरुभिरियं वनवासबनधुभि:।परभृतविरुतं कलं यथा प्रतिवचनीकृतमेभिरीदृशम्॥॥ ४.९
|-
०२॥ ॥ ५.१
|}
 
 
 
[[छन्द:]] – [[औपच्छन्दसिक:]]
{| class="wikitable"
!क्र.!!पद्यम् !! सन्दर्भ:
०१॥ अपरक्षितकोमलस्ययावत्कुसुमस्येव नवस्य षट्पदेन।अधरस्य पिपासता मया ते सदयं सुन्दरि गृह्यते रसोऽस्य॥॥ ३.२३
|-
०२॥ ॥ ३.२४
|-
०३॥ ॥ ७.२०
|-
०४॥ ॥ ७.२१
|}
 
 
[[छन्द:]] – [[पुष्पिताग्रा]]
{| class="wikitable"
!क्र.!!पद्यम् !! सन्दर्भ:
०१॥ तुरगखुरहतस्तथा हि रेणुर्विटपविषक्तजलार्द्रवल्कलेषु पतति परिणतारुणप्रकाश: शलभसमूह इवाश्रमद्रुमेषु॥॥ १.३२
|-
०२॥ ॥ २.३
|-
०३॥ ॥ ६.११
|}
 
 
[[छन्द:]] – [[आर्या]]
{| class="wikitable"
!क्र.!!पद्यम् !! सन्दर्भ:
०१॥ आपरितोषाद्विदुषां न साधु मन्ये प्रयोगविज्ञानम्। बलवदपि शिक्षितानामात्मन्यप्रत्ययं चेत:॥॥ १.२
|-
०२॥ ॥ १.३
|-
०३॥ ॥ १.१३
|-
०४॥ ॥ १.१६
|-
०५॥ ॥ १.१७
|-
०६॥ ॥ १.२१
|-
०७॥ ॥ १.२५
|-
०८॥ ॥ १.२८
|-
०९॥ ॥ १.२९
|-
१०॥ ॥ १.३४
|-
११॥ ॥ २.१
|-
१२॥ ॥ २.८
|-
१३॥ ॥ ३.२
|-
१४॥ ॥ ३.५
|-
१५॥ ॥ ३.६
|-
१६॥ ॥ ३.७
|-
१७॥ ॥ ३.११
|-
१८॥ ॥ ३.१४
|-
१९॥ ॥ ३.१६
|-
२०॥ ॥ ३.१७
|-
२१॥ ॥ ३.२१
|-
२२॥ ॥ ४.११
|-
२३॥ ॥ ४.१५
|-
२४॥ ॥ ४.२०
|-
२५॥ ॥ ५.११
|-
२६॥ ॥ ५.१३
|-
२७॥ ॥ ५.१६
|-
२८॥ ॥ ५.१८
|-
२९॥ ॥ ५.२१
|-
३०॥ ॥ ५.२८
|-
३१॥ ॥ ५.३१
|-
३२॥ ॥ ६.२
|-
३३॥ ॥ ६.३
|-
३४॥ ॥ ६.७
|-
३५॥ ॥ ६.१५
|-
३६॥ ॥ ६.१९
|-
३७॥ ॥ ६.२१
|-
३८॥ ॥ ६.३१
|-
३९॥ ॥ ७.२२
|}
 
[[छन्द:]] – [[गीति:]]
{| class="wikitable"
!क्र.!!पद्यम् !! सन्दर्भ:
०१॥ ईषदीषच्चुम्बितानि भ्रमरै: सुकुमारकेसरशिखानि।अवतंसयन्ति दयमाना:प्रमदा: शिरीषकुसुमानि॥॥ १.४
|-
०२॥ ॥ ३.१५
|}
 
 
 
"https://sa.wikipedia.org/wiki/अभिज्ञानशाकुन्तलम्" इत्यस्माद् प्रतिप्राप्तम्