"रावणः" इत्यस्य संस्करणे भेदः

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रावणः दुष्टस्वभायुतः राक्षसः । किन्तु तस्मिन् केचन गुणाः अपि आसन् । एषः बुद्धिमान् पूजानुष्ठाननिरतः ब्राह्मणः शङ्करस्य परमभक्तः । तेजस्वी प्रतापी पराक्रमी, रूपवान् विद्वान् च इति वाल्मीकिः निष्पक्षपातेन अस्य गुणान् अपि वर्णितवान् अस्ति। वेदचतुष्टयस्य विख्यातः ज्ञानी, महाविद्वान् इति रामायणे रावणस्य सभायां [[हनूमान्|हनूमतः]] प्रवेशावसरे उक्तवान् । यथा...<blockquote>अहो रूपमहो धैर्यमहोत्सवमहो द्युतिः।<br />अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता॥</blockquote>प्रथमवारं रामः रावणं दृष्ट्वा मन्त्रमुग्धः भूत्वा अवदत् रूपेण सौन्दर्येण, कान्त्या, धैर्येण, सर्वलक्षणेन युक्ते रावणे यदि अधर्मः बलवान् न अभविष्यत्, तर्हि एषः स्वर्गाधिपतिः अभविष्यत् इति । यत्र रावणः दुष्टः पापी चासीत्, तत्र एव तस्य शिष्टाचारः आदर्शाः गौरवं चासीत् । रामस्य वियोगेन दुःखितां सीतां रावणः एवम् अवदत् " हे सीते, यदि भवत्यै मयि कामभावः नास्ति तर्हि अहं भवत्याः स्पर्शम् अपि न करोमि । शास्त्रानुसारं वन्ध्या, रजस्वला. अकामा, इत्यादयः स्त्रियः अस्पृश्याः। एवं सीताम् अस्पृश्य रावणः गौरवस्य मर्यादां नातिक्रान्तवान् । वाल्मीकिरामायणे रामचरितमानसे च द्वयोः ग्रन्थयोः रावणस्य महत्वं रक्षितम् । राक्षसी माता, ब्राह्मणः पिता इति कारणेन परस्परविरोधगुणाः तस्मिन् सहजतया आसन् ।
 
==रावणस्य अवगुणाः==
[[File:Killing of Rawana Painting by Balasaheb Pant Pratinidhi.jpg|thumb|बलासाहेब पन्त-महोदेयन निर्मितं रावणवधस्य चित्रम्]]
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वाल्मीकि रावण के अधर्मी होने को उसका मुख्य अवगुण मानते हैं। उनके रामायण में रावण के वध होने पर [[मन्दोदरी]] विलाप करते हुये कहती है, "अनेक यज्ञों का विलोप करने वाले, धर्म व्यवस्थाओं को तोड़ने वाले, देव-असुर और मनुष्यों की कन्याओं का जहाँ तहाँ से हरण करने वाले! आज तू अपने इन पाप कर्मों के कारण ही वध को प्राप्त हुआ है।" [[तुलसीदास]] जी केवल उसके अहंकार को ही उसका मुख्य अवगुण बताते हैं। उन्होंने रावण को बाहरी तौर से राम से शत्रु भाव रखते हुये हृदय से उनका भक्त बताया है। तुलसीदास के अनुसार रावण सोचता है कि यदि स्वयं भगवान ने अवतार लिया है तो मैं जाकर उनसे हठपूर्वक वैर करूंगा और प्रभु के बाण के आघात से प्राण छोड़कर भव-बन्धन से मुक्त हो जाऊंगा।
==रावणस्य अवगुणाः==
वाल्मीकि रावण के अधर्मी होने को उसका मुख्य अवगुण मानते हैं। उनके रामायण में रावण के वध होने पर [[मन्दोदरी]] विलाप करते हुये कहती है, "अनेक यज्ञों का विलोप करने वाले, धर्म व्यवस्थाओं को तोड़ने वाले, देव-असुर और मनुष्यों की कन्याओं का जहाँ तहाँ से हरण करने वाले! आज तू अपने इन पाप कर्मों के कारण ही वध को प्राप्त हुआ है।" [[तुलसीदास]] जी केवल उसके अहंकार को ही उसका मुख्य अवगुण बताते हैं। उन्होंने रावण को बाहरी तौर से राम से शत्रु भाव रखते हुये हृदय से उनका भक्त बताया है। तुलसीदास के अनुसार रावण सोचता है कि यदि स्वयं भगवान ने अवतार लिया है तो मैं जाकर उनसे हठपूर्वक वैर करूंगा और प्रभु के बाण के आघात से प्राण छोड़कर भव-बन्धन से मुक्त हो जाऊंगा।-->
 
==रावणस्य दशशिरः==
"https://sa.wikipedia.org/wiki/रावणः" इत्यस्माद् प्रतिप्राप्तम्