"धन्वन्तरिः" इत्यस्य संस्करणे भेदः

धन्वन्तरिः ओषधीनां देवता। महाविष्णोः अवतारत... नवीनं पृष्ठं निर्मितमस्ति
 
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पङ्क्तिः ७:
अश्वः सप्तमुखो विषं हरिधनुः शंखोमृतं चाम्बुधेः
रत्नानीह चतुर्दश प्रतिदिनं कुर्यात्सदा मंगलम्॥</poem>
एवमुत्पन्नः धन्वन्तरिः एव आयुर्वेदं लोके प्रकटितवान्। उत्पत्तेः अनुक्षणं सः स्वकीयं कार्यं किम् इति विष्णुम् अपृच्छत्। तदानीं विष्णुः देवाः तु हविर्भागभाजः विद्यन्ते। तेषां स्थानं भवान् प्राप्तुं न शक्नोति। परन्तु भवान् लोके प्रसिद्धः भविष्यति। अतः आयुर्वेदस्य अष्ट भागान् करोतु इति आदिष्टवान्। द्वापरयुगे अपि काशराजस्य पुत्ररूपेण धन्वन्तरेः आविर्भावः आसीत्।
एवमुत्पन्नः धन्वन्तरिः एव आयुर्वेदं लोके प्रकटितवान्।
 
==मूर्तिस्थापनम्==
पङ्क्तिः २२:
भारते बहुत्र धन्वन्तरेः देवालयाः सन्ति। तत्रापि दक्षिणभारते विशिष्य तमिलुनाडुकेरलराज्ययोः आयुर्वेदपरम्परा महती विद्यते। अतः एतयोः राज्ययोः अधिकानि धन्वन्तरिमन्दिराणि दृश्यन्ते। तत्र तोट्टुवाधन्वन्तरिमन्दिरं विशालतं वर्तते। पूर्वमुखः धन्वन्तरिविग्रहः षट् फीट् परिमितः उन्नतः वर्तते। दक्षिणहस्ते अमृतभाण्डः च गृहीतः वर्तते। गुरुवायूर् एकादशीदिने अत्र महान् उत्सवः प्रचलति। तमिलुनाडुराज्ये श्रीरङ्गे रङ्गस्वामिदेवालये धन्वन्तरिदेवता अपि विद्यते। गरुडवाहनभट्टर् नामकः कश्चन महान् आयुर्वेदवैद्यः देवालयस्य अन्तः धन्वन्तरेः मूर्तिं स्थापितवान् इति उल्लेखोऽपि वर्तते। काञ्चीपुरे अपि कश्चन धन्वन्तरीदेवालयः दृश्यते।
 
==आयुर्वेदे==
आयुर्वेदसम्बद्धान् लक्षं श्लोकान् ब्रह्मा रचयामास। आयुर्वेदशास्त्रस्य एकसहस्राध्यायात्मकस्य सर्जनमपि ब्रह्मणा एव कृतम्। प्रजापतेः अश्विनीकुमारौ आयुर्वेदं ज्ञातवन्तौ। अश्वनीदेवताभ्याम् इन्द्रः पपाठ। इन्द्रात् धन्वन्तरिः आयुर्वेदविद्यां जग्राह। धन्वन्तरेः सुश्रुतः आयुर्वेदविद्यां प्राप्य लोके प्रसारयामास। परन्तु भावप्रकाशे आत्रेयप्रमुखाः मुनयः इन्द्रात् आयुर्वेदं पठित्वा अग्निवेशं बोधयामासुः। अत्र धन्वन्तरेः उल्लेखोऽपि न विद्यते।
आयुर्वेद के संबंध में सुश्रुत का मत है कि ब्रह्माजी ने पहली बार एक लाख श्लोक के, आयुर्वेद का प्रकाशन किया था जिसमें एक सहस्र अध्याय थे। उनसे प्रजापति ने पढ़ा तदुपरांत उनसे अश्विनी कुमारों ने पढ़ा और उन से इन्द्र ने पढ़ा। इन्द्रदेव से धन्वंतरि ने पढ़ा और उन्हें सुन कर सुश्रुत मुनि ने आयुर्वेद की रचना की।[7] भावप्रकाश के अनुसार आत्रेय प्रमुख मुनियों ने इन्द्र से आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त कर उसे अग्निवेश तथा अन्य शिष्यों को दिया।
 
विध्याताथर्व सर्वस्वमायुर्वेदं प्रकाशयन्।
स्वनाम्ना संहितां चक्रे लक्ष श्लोकमयीमृजुम्।।[8]
 
इसके उपरान्त अग्निवेश तथा अन्य शिष्यों के तन्त्रों को संकलित तथा प्रतिसंस्कृत कर चरक द्वरा 'चरक संहिता' के निर्माण का भी आख्यान है। वेद के संहिता तथा ब्राह्मण भाग में धन्वंतरि का कहीं नामोल्लेख भी नहीं है। महाभारत तथा पुराणों में विष्णु के अंश के रूप में उनका उल्लेख प्राप्त होता है। उनका प्रादुर्भाव समुद्रमंथन के बाद निर्गत कलश से अण्ड के रूप मे हुआ। समुद्र के निकलने के बाद उन्होंने भगवान विष्णु से कहा कि लोक में मेरा स्थान और भाग निश्चित कर दें। इस पर विष्णु ने कहा कि यज्ञ का विभाग तो देवताओं में पहले ही हो चुका है अत: यह अब संभव नहीं है। देवों के बाद आने के कारण तुम (देव) ईश्वर नहीं हो। अत: तुम्हें अगले जन्म में सिद्धियाँ प्राप्त होंगी और तुम लोक में प्रसिद्ध होगे। तुम्हें उसी शरीर से देवत्व प्राप्त होगा और द्विजातिगण तुम्हारी सभी तरह से पूजा करेंगे। तुम आयुर्वेद का अष्टांग विभाजन भी करोगे। द्वितीय द्वापर युग में तुम पुन: जन्म लोगे इसमें कोई सन्देह नहीं है।[7] इस वर के अनुसार पुत्रकाम काशिराज धन्व की तपस्या से प्रसन्न हो कर अब्ज भगवान ने उसके पुत्र के रूप में जन्म लिया और धन्वंतरि नाम धारण किया। धन्व काशी नगरी के संस्थापक काश के पुत्र थे।
 
वे सभी रोगों के निवराण में निष्णात थे। उन्होंने भरद्वाज से आयुर्वेद ग्रहण कर उसे अष्टांग में विभक्त कर अपने शिष्यों में बाँट दिया। धन्वंतरि की परम्परा इस प्रकार है -
 
काश-दीर्घतपा-धन्व-धन्वंतरि-केतुमान्-भीमरथ (भीमसेन)-दिवोदास-प्रतर्दन-वत्स-अलर्क।
 
यह वंश-परम्परा हरिवंश पुराण के आख्यान के अनुसार है।[9] विष्णुपुराण में यह थोड़ी भिन्न है-
 
काश-काशेय-राष्ट्र-दीर्घतपा-धन्वंतरि-केतुमान्-भीरथ-दिवोदास।
==उल्लेखाः==
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"https://sa.wikipedia.org/wiki/धन्वन्तरिः" इत्यस्माद् प्रतिप्राप्तम्