वर्गः:संस्कृतपत्रिकाः
अयं वर्गः संस्कृतपत्रिकाणां विषये विद्यते ।
शोध पत्रं संस्कृत मुक्तक काव्य कि आनन्दता का परिचय "संस्कृतमुक्तककाव्यपरम्परायां संसर्गंमाहात्म्यं "
किशन गोपाल मीना (साहित्याचार्य)विध्या निधि ,नेट शिक्षा शास्त्री ,एम ए हिन्दी संस्कृत शिक्षक केन्द्रीय विद्यालय सवाई माधोपुर (राजस्थान) संस्कृत भाषा प्रारंभ से हि सरस सुन्दर तथा मधुर गीर्वा के रूप में पाठको को अमृतपान से आनन्दित कर रही है |अमृतमय सूक्त ,श्लोक ,मन्त्र ,गद्द्य कथनं आदि मानव को सुगम ज्ञान से पल्लवित करते आ रहे है | वेद ,उपनिषद ,पुराण आदि जगत को सुसंस्कारो से सज्जनता आध्यात्मिक्ता परोपकारी गुणवान तथा महानता कि और अग्रसर कर रहे है |संस्कृतममय सभी ग्रन्थ संसार को देदीप्यमान ज्ञान से प्रकाशित कर रहे है | संस्कृत काव्य दो भागों में विभाजित है --1 -गद्द्य 2-पद्य पद्य भाग मे फिर दो उपभाग हो जाते है | खंड ,गीति जो गेय पद बिना पाबंदी के गाये जाते है तथा नियमों की स्वतन्त्रता होती है उसे मुकतक कहते है जिसमे छंद दोष तुक अलंकार आदि से मुक्ति होती है मुक्तक के प्रत्येक शब्द में रसपेशलता होती है | मोदक की तरह मिठास से भरे है |जन -जन के कानों को सुनने मजबूर कर देते है| प्रबंध और मुक्तक के भेद से खण्ड काव्यो को दो प्रमुख भागों में बांटा गया है प्रबंध काव्य के की रचना के अंतर्गत रचनाकार एक अति अल्प कथा अंश को लेकर अपनी सहज आंतरिक प्रेरणा से भावगम्य होकर कल्पना के द्वारा विस्तारित रूप से आगे आयाम देता है | जबकि मुक्तक काव्य संदर्भ आदि बाह्य वस्तुओं से मुक्त होकर स्वयं ही रसपेशल होता है | उसमें एक ही पद्य में रस की पूर्ण रसानुभूति हो जाती है एवं किसी- किसी विषय का सांगोपांग चित्रण होता है | “पुर्वपर्निरपेक्षेनापि ही येन रसचर्वना क्रियते तदेव मुक्तंम् (ध्वन्यालोके) रमणी –सोन्दर्य जितनी सुन्दरता एवं स्वभाविकता के साथ मुक्तको में प्रस्फुटित हुआ उतना अन्यत्र दुर्लभ है | नारी के ह्रदय तथा रूप कि छटा के रंगीन –चित्रण किस रसिक के मानस पटल में मधुर प्रेम का झरना नहीं बहाते शृंगार की भिन्न –भिन्न अवस्थाओं का मार्मिक चित्रण मुक्तकों की महती आवश्यकता है| आलोचको की धारणा है की शृंगारिक मुक्तकों में इंद्रियोत्तेजक काम का ही अभिराम चित्रण है | इस प्रकार की बाते आम है आलोचकों काम केवल दोष आरोपण करना है तह तक की जानकारी के बिना ही आक्षेपों का मंडन कर देते है |संस्कृत साहित्य के शृंगारिक काव्यों के बारे में आलोचकों की ऐसी धारणा है मुक्तकों के मधुर पेय कों कटु बताने में उनको आनंद की प्राप्ति होती है परंतु कभी हीरा कोयले की खान में छुपता है क्या वह अपने गुणों से स्वत:प्रतिबिम्बित होता है उसी प्रकार मुक्तकों की मिठास और विदित गुणों कों सामान्य जन कों प्रभावित करने से कोई नहीं रोक सकता है | आचार्य रुद्रट की यह उक्ति आलोचकों कों हमेशा याद रखनी चाहिए – न हि कविना परदारा एष्टव्या नापि चोपदेष्टव्या :| कर्तव्यतयान्येषाम् न च तदुपायोभिधातव्य: || किन्तु तदीयं वृत्तं कव्यांगतया स केवलं वक्ति | आराधयितुं विदुषस्तेन न दोषः कवेरत्र ||
जिस प्रकार मेघदूत में कालिदास ने जैसे शक्कर ही घोल दी हो भृतहरि के त्रि शतकम ,अमरू शतकम आदि काव्य वक्ता, श्रोता पाठकगणो को आनंद के रस की अनुभूति कराते है क्योंकि यह भाषा तथा अर्थ की द्रष्टि से भावगम्य तथा सुंदरता से मधुसूक्त रस की तरह आमजन के मानस में टपकते रहते है |
अनेक आधुनिक कवियों ने तो इसी सुगम मुक्तक मार्ग को अपनी लेखनी का सशक्त मार्ग बना लिया है | डा.रामदेव साहू द्वारा रचित मुक्तक काव्य "संसर्ग महात्म्यम "पर मुझे भी शोध करने का मौका मिला है | इस विधा से प्रभावित होकर आचार्य उमेश नेपाल राजस्थान संस्कृत विश्वविध्यालय जयपुर राजस्थान के मार्गदर्शन में "संस्कृत मुक्तक काव्य परम्परायां संसर्गं माहात्म्यं "विषय पर विद्या निधि उपाधि प्राप्त कि अत:अनेक शोध कर्ता हर वर्ष अनेक विषयो पर शोध कार्य कर रहे है | मुक्तक काव्य के शब्द स्वतः मुखारविंद से प्रकट होते है यथा --वाल्मीकि के मुख से क्रोञ्च की घायल अवस्था से प्रकट प्रथम श्लोक---
मा निषादप्रतिष्ठामत्वमगम :शाश्वती: समा:| यत्क्रोन्चमिथुनादेकमवधि: काममोहितं ||
महाभारते विविधानि मुक्तक काव्यानि राजसभायां जनसमाजे व श्राव्यन्ते स्म | समापर्वे निर्दिष्टं वर्तते --- "सामानि स्तुति गीतानि गाथाश्च विविधास्तथा |" ध्वनिकार: कथितं ---- प्रबन्धे मुक्तके वापि रसादिन् बन्धुमि च्छ्ता|
यत्न: कार्य: सुमतिना परिहारे विरोधिनां ||
एवं संस्कृत साहित्ये मुक्तकानां लघुकव्यानां वा परम्परा श्रङ्गार नीति -वैराग्यादि विषयषु तरङ्गिणी प्रवहमाना भक्ति -जीवनादर्श -रागात्मतादिनाम निदर्शनानि प्रस्तोति | कवि गण प्रभावित होकर अनेक ग्रन्थो कि रचना इसी मुक्तक परम्परा मे हुई ---- जयदेव कृत -गीतगोविन्दं ,बिल्हण कृत -चौरपंचशिका अर्थात अनेक रत्नाकर ग्रंथो की रचना हुई _ आचार्य रामदेव साहू कृत ---संसर्ग महात्म्यम श्लोका:
दोषास्तु दुष्टेषु स्वतो विशन्ति गुणा विशन्ति प्रचुर प्रयत्नै : | तथापि प्रोचु: कवयो विशिष्टं , संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति ||
मुक्तक काव्य के हर पद में संगीत के सभी स्वर गुन्जायमन है ,सप्तपदी भ्रमरो कि मधुर ध्वनि ,कोयल कि वासंति आदि मधुरता प्रत्येक मानस का जीवन आनन्द से भर जाता है | इसलिए कवि सामान्य मुक्तकमय हो जाते है |
संदर्भित सूची --- 1-वाल्मीकि रामायण -आदिकाण्ड् गीता प्रेस गोरखपुर १९८० 2-महाभारत -सभापर्व चोखंभा विद्या भवन १९६३ 3-ध्व्न्यलोक चोखंभा विद्या भवन वाराणसी 4-अमरु शतकं -हन्सा प्रकाशन
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